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बैंकिंग अवेयरनेस स्पेशल सीरीज : भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का इतिहास तथा मौद्रिक नीति (Nationalisation of Banks in India and Monetary Policy.)

बैंकिंग अवेयरनेस स्पेशल सीरीज : भारत में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का इतिहास तथा मौद्रिक नीति (Nationalisation of Banks in India and Monetary Policy.) | Latest Hindi Banking jobs_3.1


Nationalization of Banks in India and Monetary Policy: Banking Awareness Special Series

 

भारत में बैंकों का राष्ट्रीयकरण

भारतीय बैंकों का इतिहास-

भारत में बैंकों को निम्नलिखित तीन चरणों में बाँटा जा सकता है-
1. स्वतंत्रता पूर्व चरण (1947 से पहले)
2. दूसरा चरण (1947 से 1991)
3. तीसरा चरण (1991 से अब तक) 

पहला चरण- 1770 में भारत में पहली बैंक की स्थापना की गई जिसका नाम “बैंक ऑफ़ हिंदुस्तान” था। हालाँकि ये बैंक 1832 में ही बंद हो गई थी। उस समय की कई बैंक जैसे- इलाहाबाद बैंक, बैंक ऑफ़ इंडिया, पंजाब नेशनल बैंक आदि आज भी भारत में काम कर रहे हैं।


दूसरा चरण- इस चरण को मुख्यतः बैंकों के राष्ट्रीयकरण के लिए जाना जाता है।

तीसरा चरण- इस चरण में सरकार ने आर्थिक नीतियों में लचीलापन लाकर बैंकों का बहुमुखी विकास किया। निजी बैंक इसी चरण के दौरान बैंकिंग प्रणाली में आए।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण-

1. भारत में सबसे पहले भारतीय रिज़र्व बैंक का राष्ट्रीयकरण किया गया।

2. इसके बाद जुलाई 1969 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी द्वारा 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

3. 1980 में 6 अन्य वाणिज्यिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया।

4. 1969 में ही क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (RRB) की स्थापना की गई। इसका उद्देश्य ग्रामीण जनता तक बैंकिंग सुविधा पहुँचाना था।


History of Banking : भारत में बैंकिंग का इतिहास, 1770 में खुला था पहला बैंक

राष्ट्रीयकरण का भारत पर प्रभाव-

1. इससे बैंकिंग प्रणाली की क्षमता में सुधार हुआ जिससे जनता का विश्वास बैंकों के लिए बढ़ा।

2. राष्ट्रीयकरण होने से बैंकों को दूर-दराज के क्षेत्रों में पहुँचाया गया जिससे अनेकों लोगों की मदद हो सकी।

3. इसकी मदद से भारत में आर्थिक गतिविधियों में धन और विदेशी निवेश में बढ़ोत्तरी हुई।

मौद्रिक नीति

अर्थ- मौद्रिक नीति वह है जिसमें केंद्रीय बैंक के नियंत्रण के अंतर्गत मुद्रा और ऋण की उपलब्धता, लागत और उपयोग को नियंत्रित किया जाता है। इसका मुख्य लक्ष्य कम और स्थिर मुद्रास्फीति तथा विकास को भारत में बढ़ावा देना है।

भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 को मई 2016 में संशोधित किया गया जिसके अंतर्गत ये प्रावधान दिया गया कि लचीले मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारण ढांचे पर काम करने के लिए संवैधानिक आधार प्रदान किया जा सके।

मौद्रिक नीति के कार्यान्वन के लिए विभिन्न प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष टूल्स का उपयोग किया जाता है जैसे-

रेपो दर, रिवर्स रेपो दर, सीमान्त स्थायी सुविधा (MAF), चलनिधि समायोजन सुविधा (LAF), कॉरिडोर, बैंक दर, नकदी आरक्षित निधि अनुपात (CRR), सांविधिक चलनिधि अनुपात (SLR), खुला बाजार परिचालन (OMO) आदि।

मौद्रिक नीति मुख्यतः दो प्रकार की होती है-

1. विस्तारक (Expansionary)- ये धन की आपूर्ति को बढ़ाता है तथा निवेश और उपभोक्ता (Consumer) खर्च को बढ़ावा देता है। इसके अंतर्गत देश में बेरोजगारी तथा मंदी पर भी ध्यान दिया जाता है। मौद्रिक प्राधिकरण देश में विस्तारक नीति के तहत ब्याज दरों को कम करता है।

2. संकुचित (Contractionary)- यह मुद्रा आपूर्ति की गति को धीमा करके मुद्रास्फीति को कम करता है। ज्यादा धन आपूर्ति से रोजमर्रा की चीज़ों की लागत भी बढ़ जाती है इसलिए इसे कम रखने का काम इस नीति के अंतर्गत किया जाता है।

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